देश की राजधानी दिल्ली में प्रदूषण का स्तर लगातार खतरनाक बना हुआ है। सर्दियों में तो हालात और बिगड़ जाते हैं, जब धुंध और धुआं मिलकर स्मॉग बना देते हैं।
इसी समस्या से निपटने के लिए वैज्ञानिकों ने दिल्ली के आसमान में पहली बार क्लाउड सीडिंग (कृत्रिम बारिश) का प्रयोग किया। हालांकि बारिश नहीं हुई, लेकिन हवा में मौजूद ज़हरीले कणों में 6 से 10 प्रतिशत तक की कमी दर्ज की गई।
बारिश नहीं हुई, फिर भी क्यों कहा जा रहा है सफल प्रयास?
आईआईटी कानपुर के डायरेक्टर प्रोफेसर मनींद्र अग्रवाल के अनुसार, यह प्रयोग पूरी तरह असफल नहीं कहा जा सकता।
दरअसल, प्रयोग के समय बादलों में नमी बेहद कम — सिर्फ 15% — थी।
क्लाउड सीडिंग तभी असरदार होती है जब बादलों में पर्याप्त नमी यानी कम से कम 75% रिलेटिव ह्यूमिडिटी हो।
कम नमी की वजह से बूंदें बड़ी नहीं बन पाईं, इसलिए बारिश नहीं हुई। फिर भी प्रदूषण में गिरावट आई, जो इस तकनीक की उपयोगिता दिखाती है।
कैसे होती है कृत्रिम बारिश की प्रक्रिया?
क्लाउड सीडिंग में हवाई जहाज के जरिए बादलों में सिल्वर आयोडाइड जैसे रासायनिक कण छोड़े जाते हैं।
ये कण बर्फ जैसे क्रिस्टल बनाते हैं, जो पानी की सूक्ष्म बूंदों को आकर्षित करते हैं।
जब ये क्रिस्टल आकार में बड़े हो जाते हैं, तो बारिश या बर्फ के रूप में नीचे गिरते हैं।
अगर बादल सूखे हों या उनमें नमी कम हो, तो यह प्रक्रिया काम नहीं करती।
दिल्ली के प्रयोग से मिली अहम जानकारी
आईआईटी कानपुर की टीम ने दिल्ली के 15 अलग-अलग इलाकों में मॉनिटरिंग स्टेशन लगाए थे, जिनसे हवा में नमी और प्रदूषण के आंकड़े जुटाए गए।
इन आंकड़ों से पता चला कि PM2.5 और PM10 स्तर 6 से 10% तक घटे, जो दर्शाता है कि क्लाउड सीडिंग से हल्का प्रदूषण नियंत्रण संभव है, भले ही बारिश न हो।
टीम ने फिलहाल अगला ट्रायल स्थगित किया है। नया प्रयोग तभी किया जाएगा जब बादलों में पर्याप्त नमी हो।
भविष्य की उम्मीदें और वैश्विक उदाहरण
अमेरिका, चीन और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में यह तकनीक सूखा रोकने और प्रदूषण घटाने के लिए पहले से सफलतापूर्वक उपयोग की जा रही है।
अगर दिल्ली में भविष्य के ट्रायल में नमी का स्तर बेहतर रहा, तो भारत भी इस दिशा में बड़ी उपलब्धि हासिल कर सकता है।
विशेषज्ञों का मानना है कि यह तकनीक आने वाले समय में स्मॉग से जूझते शहरों के लिए नई उम्मीद साबित हो सकती है।